14-09-2008


(Guest)

 

 

हिन्दी के सामूहिक सम्मान का सवाल

 

 

Shruti Agrawal WD  

-राजकुमार कुम्भज
इधर कुछ दिनों से हिन्दी दिवस आते-आते तो कुछ सवाल कुछ अधिक ही तकलीफ देने लगते हैं। कुछ सवाल ये हैं कि हमारी हिन्दी अंततः दोयम दर्जे की भाषा कैसे हो गई है? हिन्दी, हिन्दी समाज और हिन्दी किताब को आखिर दोयम दर्जे का करार कैसे, क्यों और कौन दे रहा है? क्या हिन्दी समाज ने खुद ही हिन्दी को रद्द कर दिया है? हिन्दी समाज ने खुद ही क्यों हिन्दी किताब की जगह को संकुचित बना दिया है?

 
अँग्रेज चले गए, लॉर्ड मैकाले भी चले गए, लेकिन हमारे देश में अँग्रेज मानसिकता के अवैध बीजारोपण की फसल आज भी बखूबी लहलहा रही है, लॉर्ड मैकाले की 'बाबू निर्माण उद्योग नीति' भी खूब फल-फूल रही है, हिन्दी समाज को, हिन्दी समाज ही डरा रहा है।

स्तरहीन अँग्रेजी सिखाने वाले तथाकथित 'इंटरनेशनल पब्लिक स्कूलों' के नामपट्ट, भ्रष्ट हिन्दी में लटके क्यों नजर आ रहे हैं? इस प्रारंभिक प्रसंग की एक वीरोचित व्याख्या क्या यह नहीं हो सकती है कि हमारे हिन्दी समाज की तरल-सरल मानसिकता पर लॉर्ड मैकाले की भाषाई औपनिवेशिक मानसिकता ने बेहद गहरे तक अतिक्रमण कर रखा है?

अँग्रेज चले गए, लॉर्ड मैकाले भी चले गए, लेकिन हमारे देश में अँग्रेज मानसिकता के अवैध बीजारोपण की फसल आज भी बखूबी लहलहा रही है, लॉर्ड मैकाले की 'बाबू निर्माण उद्योग नीति' भी खूब फल-फूल रही है, हिन्दी समाज को, हिन्दी समाज ही डरा रहा है। हिन्दी समाज के समक्ष आज सबसे बड़ी चुनौती खुद हिन्दी समाज से होती जा रही है। समकालीन हिन्दी समाज एक ऐसे समाज के निर्माण में जुटा है, जो स्वयं ही हिन्दी की अवहेलना का प्रथम पाठ लिखता है।

किसी भी प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित, उच्च-मध्य अथवा निम्न-मध्य वर्ग का खुला आकलन कर देखिए- हम पाते हैं कि जिनके पुरखों ने प्राथमिक-शिक्षा की मंजिल तक बेहद मुश्किल से हासिल की थी और यह भी कि ठेठ पारंपरिक भारतीय पद्धति से हासिल की थी, उनका एकमात्र झुकाव, आखिर हिन्दी से अलगाव और अँगरेजी से लगाव की तर्कहीन स्थिति तक कैसे पहुँच गया?

ऐसा तो इस बिंदु पर यह कदापि नहीं सोचा जाना चाहिए कि डॉ. लोहिया नहीं रहे, तो भारतीय भाषाओं की अस्मिता का आंदोलन भी अब नहीं रहा? व्यक्ति आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन क्या विचार भी? इस दयनीयता के कूप से हिन्दी-समाज को जल्द से जल्द बाहर निकल आना चाहिए और हिन्दी के सामूहिक सम्मान का एक सकल विश्व अभियान चलाना चाहिए।

आजकल शहर-दर-शहर पुस्तक मेलों का आयोजन होता रहता है। शोध का विषय हो सकता है कि ऐसे मेलों से शहर के कितने हिन्दी लेखक कितनी हिन्दी पुस्तकें खरीदते हैं? अपनी खुद की किताब बिकवाने की जुगाड़ में जमीन-आसमान एक करने वाला हिन्दी लेखक कोई भी प्रत्याशित-अप्रत्याशित हथकंडा अपनाने से कब और कहाँ चूकता है?

यहाँ तक कि किसी भी फालतू या छद्म संस्था को खुद पैसा देकर सम्मानित हो जाना अपना मौलिक अधिकार समझता है। हिन्दी लेखक अथवा हिन्दी सेवक की दीर्घकालिक सेवाओं का सम्मान किया जाना जरा भी अन्यथा नहीं है। इस तरह के सम्मानों से, किसी भी भाषा साधक द्वारा किए गए सद्कार्यों को, दरअसल सामाजिक स्वीकृति का विनम्र सद्‍भाव ही प्रदान किया जाता है। हिन्दी सेवा के सामूहिक प्रयासों को भी सामाजिक सम्मान की श्रेणी में लाया जाना जरूरी है।

यहीं एक ताजा खबर पर गंभीरतापूर्वक गौर किया जाना बेहद जरूरी तथा महत्वपूर्ण मामला बन जाता है। प्रख्यात समाजवादी विचारक सच्चिदानंद सिन्हा (पटना) को केंद्रीय हिन्दी संस्थान (आगरा) द्वारा वर्ष 2004 का लखटकिया हिन्दी सेवा सम्मान देने की घोषणा की गई है, किंतु सच्चिदानंद सिन्हा ने केंद्रीय हिन्दी संस्थान के निदेशक प्रोफेसर शंभूनाथ को, पत्र लिखकर उक्त पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया है। 14 सितंबर, हिन्दी दिवस के अवसर पर, राष्ट्रपति भवन में खुद राष्ट्रपतिजी के हाथों एक लाख रुपए की राशि का पुरस्कार स्वीकार नहीं करने के संदर्भ में, सच्चिदानंद सिन्हा का दृढ़-विचार एक नई बहस को जन्म दे सकता है।

हिन्दी सेवी सम्मान योजना के तहत केंद्रीय हिन्दी संस्थान का महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन हिन्दी सेवी पुरस्कार, एक अति संवेदनशील और एक अति-सम्मानित सम्मान है। यह मुद्दा न सिर्फ हिन्दी के सम्मान सहित, हिन्दी की संपूर्ण स्वाधीनता के संपूर्ण सम्मान की, संपूर्ण जागृति सहित, संपूर्ण सामाजिकता का ही सवाल पैदा नहीं करता है, बल्कि सामूहिक प्रयासों के संपूर्ण सम्मान के स्वीकार की अवधारणा भी प्रस्तुत करता है।

यदि हमने अपनी राजनीतिक स्वाधीनता के समय ही अपनी भाषाई स्वाधीनता के सवाल को भी सुलझा लिया होता, तब तो बात ही कुछ और होती। हिंग्रेजी अथवा हिंग्लिश जैसी बाजार बनाऊ और पैसा टपकाऊ हिन्दी को दोष देना ठीक नहीं है। वह भाषा का नहीं, बल्कि बाजार का मामला है। बाजार को बहुत कुछ बेचना होता है। वह बहुत कुछ बेचते हुए भाषा भी बेचता है। भाषा के जरिए बेचता है और एक ऐसी भाषा का आविष्कार करता है, जो शुद्धता-अशुद्धता की जरा भी चिंता न करते हुए सिर्फ अपने अर्थशास्त्र के थुलथुल का ही विस्तार करती है।