जनाब बराक ओबामा वैसे तो इशारों- इशारों में जार्ज बुश की खिल्ली उड़ाते रहते हैं पर कई मायनों में वे अपने उत्तराधिकार धर्म की रक्षा भी करते हैं। इसमें सबसे प्रिय है भारत और चीन पर तंज कसना। उनका नवीनतम शिगूफा है कि भारत और चीन में कारों की तादाद बहुत बढ़ती जा रही है, उन्हें इस पर अंकुश लगाने की सोचनी चाहिए। इसके आगे वे फरमाते हैं कि इससे तेल अधिक खर्च होता है और उसकी कीमतों में बढ़ोतरी होती जाती है।
सब जानते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति खुद को दुनिया का दारोगा मानते हैं पर इधर उन्होंने खुद को विश्व गुरु भी मानना शुरू कर दिया है। इसीलिए जब चाहें तब किसी को भी नसीहत दे डालते हैं। ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि खुद उनके पैरों के नीचे की जमीन कितनी पोली है।
सबसे पहले कारों की ही बात कर लें। अमेरिका की आबादी लगभग साढ़े तीस करोड़ है। वहां पंजीकृत कारों की संख्या 6.2 करोड़ है और माना जाता है कि गैर पंजीकृत गाड़ियां इससे भी ज्यादा 6.4 करोड़ हैं। वाहनों की सालाना बिक्री के मामले में भी अमेरिकी काफी आगे हैं। साल 2008-2009 में एक अनुमान के अनुसार वहां 1.6 करोड़ कारें खरीदी गईं।
इसके उलट दुनिया में सबसे आबादी सम्पन्न देश चीन में कुल जमा 1.3 अरब लोग रहते हैं जबकि कारें हैं सिर्फ 4.5 करोड़। जहां तक भारत की बात है यहां पर प्रति 1000 लोगों पर आठ कारें हैं। यूरोप और अमेरिका में प्रति 1000 आबादी पर 600 कारें आंकी गई हैं। यह भी माना जाता है कि काफी तेज बढ़ोतरी के बावजूद 2030 तक 1000 भारतीयों के पास औसतन 140 कारें ही होंगी।
यह हाल तब है जब भारत में मध्यवर्ग तेजी से बढ़ रहा है और फिलहाल एक अरब से ज्यादा लोगों में से 45 करोड़ को मध्य वर्ग में शुमार किया जाता है। मुझे यकीन है कि बराक ओबामा ने ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाली कहावत नहीं सुनी होगी। हालांकि, वे काम यही कर रहे हैं। दूसरों को उपदेश देने से पहले वे खुद संयुक्त राज्य अमेरिका में कारों की बढ़ोतरी पर अंकुश लगाने के कुछ सार्थक उपाय क्यों नहीं करते?
अब आते हैं पेट्रोल की खपत पर। आंकड़े लगभग तीन साल पुराने होने के बावजूद चौंकाने वाले हैं। सन् 2007 में अमेरिका में पेट्रोलियम पदार्थो की खपत भारत और चीन के साझा उपभोग से लगभग दोगुनी थी। कहने की जरूरत नहीं कि पेट्रोलियम पदार्थो के प्रयोग से कार्बन उत्सर्जन की मात्र बहुत बढ़ जाती है। अब यह भी देख लेते हैं कि एक अमेरिकी अपने भारतीय और चीनी भाइयों के मुकाबले कितना कार्बन उत्सर्जन करता है?
एक शोध के अनुसार अमेरिका में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 19 मीट्रिक टन है जबकि भारत में 1.3 और चीन में 4.3 मीट्रिक टन। है न कमाल? अमेरिकी यहां भी कई गुना आगे हैं। कारें ज्यादा वे खरीदते हैं, कार्बन उत्सर्जन औरों के मुकाबले उनका अधिक है पर फिर भी खोखले दंभ से भरी बातचीत पर कोई विराम नहीं।
मानने वाले यह भी मानते हैं कि अमेरिका ने 1991 में इराक पर हमला तेल के कुंओं के लिए किया। वे यहीं नहीं रुके। 2003 में वे उस सरजमीं पर इसलिए जा बैठे ताकि वहां के तेल कूपों पर अपनी पकड़ बना सकें। अमेरिकी दोमुंहेपन का यह अकेला उदाहरण नहीं है। भारत के साथ परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के लिए समझौता करने में उन्होंने बरसों लगा दिए।
जानते हैं एक अमेरिकी एक वर्ष में कितने किलोवाट बिजली खर्च करता है ? 11.4 किलोवाट जबकि चीन में यह खपत 1.6 और भारत में सिर्फ 0.7 किलोवाट है। हमें नसीयत देते वक्त वे भूल जाते हैं कि ये दोनों महादेश अभी विकास की सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। यहां के गांवों में अभी भी बिजली और सड़कों का अभाव है। दुनिया के विकासपथ पर लाने के लिए अभी इन दोनों देशों में बहुत कुछ किया जाना शेष है। क्यों नहीं अमेरिकी कुछ दिन अपनी बुरी आदतों को त्यागकर इन गरीब-गुर्बो को बढ़ने और पनपने का मौका देते?
कभी जार्ज डब्ल्यू बुश ने यह कहकर हम सबको चौंका दिया था कि हिन्दुस्तानी बहुत ज्यादा खाते हैं। मुझे उस समय न्यूयॉर्क में बिताए वे दिन याद आ गए थे, जब मैं वहां के लोगों की भोजन वृत्ति देखकर चकित हुआ करता था। कॉफी या चाय का मग इतना बड़ा कि एक बार में पीना असंभव। खाने और पीने के मामले में संसार के सबसे सम्पन्न देश के लोग दारिद्रिक संस्कारों का प्रदर्शन करते हैं। जितने भोजन की बरबादी वहां होती है, उतने से अफ्रीका और एशिया के कई गरीब देशों का पेट सहजता से भरा जा सकता है।
अक्सर अफसोस के साथ एक किस्सा याद आता है। मैंने जब एक अमेरिकी दोस्त का ध्यान इस बरबादी की ओर दिलाया तो उन्होंने हंसकर कहा था कि अरे ऐसी भी क्या फिक्र? तुम अमेरिका में हो। थोड़ा खाओ, बहुत सा फेंको। मैंने उनसे सविनय कहा था कि हम हिन्दुस्तानी थाली में अन्न का एक दाना छोड़ना भी उसका और उसे मुहैया कराने वाले ईश्वर का अपमान समझते हैं। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि एक अमेरिकी अपने मूल भोजन पर औसतन प्रतिदिन 100 रुपए खर्च करता है जबकि हिन्दुस्तानी महज 10 रुपए।
बुश और ओबामा पर लौटते हैं। यह ठीक है कि श्रीमान बुश ‘स्मार्ट’ थे। उनके बदन पर अतिरिक्त चर्बी दिखाई नहीं पड़ती थी। इसके लिए वे काफी मेहनत भी करते थे क्योंकि ‘स्पिन डॉक्टर्स’ यानी उनकी छवि को चमत्कारिक तौर पर पेश करने वालों ने महामहिम को समझाया था कि दुनिया में रुआब जमाए रखने के लिए खुद भी चुस्त-दुरुस्त होना जरूरी है। दूसरे अर्थो में यह शो बिजनेस है, वही शो बिजनेस जिसके बूते पर अमेरिका गरीब और कमजोर दुनिया को चमत्कृत करता रहता है।
बुश के उत्तराधिकारी ओबामा साहब तो इतने दुबले हैं कि कई सर्वेक्षणों ने उन्हें,‘अंडरवेट’ ही कह डाला। वे अपने पूर्ववर्ती से दो कदम आगे हैं। एक बार चुनाव के दौरान उन्हें किसी महिला ने केक का टुकड़ा भेंट किया था। इस केक को वह प्रसाद की तरह इस आशा के साथ संजोकर रखे हुए थीं कि जब यह अश्वेत उम्मीदवार उन्हें मिलेगा तो वह स्नेह से उनको खिलाएंगी। कोई हिन्दुस्तानी नेता होता तो मजबूरी में ही सही पर उसे चखता जरूर पर ओबामा ने ऐसा करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि यह मेरी सेहत के लिए ठीक नहीं।
यह भी अमेरिकी विरोधाभास का अद्भुत नमूना है। एक तरफ अमेरिकी राष्ट्रपतियों का वजन घट रहा है तो दूसरी तरफ मोटापे के मामले में अमेरिकी दुनिया में सबसे आगे हैं। कथनी और करनी के इसी फर्क का नाम अमेरिका है। कृपया अमेरिका के वर्तमान और निवर्तमान ‘प्रथम पुरुषों’ के कहे का बुरा न मानें। वे जैसे हैं वैसे ही रहेंगे।