Openings should not rely

kamal kishor sen (STUDENT Rajasthan) (2156 Points)

30 July 2011  

भागदौड़ नहीं भरोसा चाहिए

 

 

आज के युग में विश्वास, संतोष, आत्मीयता जैसे भाव बहुत ही कम इंसानों में दिखाई देते हैं। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता, कहीं कोई सच्ची बात नहीं करता। एक-दूसरे से आत्मीयता से भरकर मिलता नहीं। सभी ज्यादातर औपचारिकता निभाते रहते हैं, ऊपरी मन से!



आज इंसान के मन में उलझनों, झंझटों, नफरत, जलन आदि जैसे भावों ने घर कर लिया है। जहां कभी प्यार, सहानुभूति, दया व संतोष हुआ करता था, वहां अब ये भाव बस गए हैं।



इन सभी झंझटों का एक ही कारण है, वह है, भौतिकतावादी जीवन या कहें भौतिक सुखों की लालसा। ये वो तृष्णा है, जो कभी खत्म नहीं होगी। आज इतने भौतिक साधन हैं कि उनको अगर आप प्राप्त कर भी लें, तो उनको व्यवस्थित रखने की चिंता, फिर और नए आविष्कार, फिर और नए साधन और नई वस्तुएं लाने की कामना, ये सभी अनंत तक चलता ही रहेगा।



आवश्यकता आविष्कार की जननी है, पर इतनी भी नहीं कि इंसान आविष्कार इतने ज्यादा कर ले कि मूल आवश्यकता के बजाए हम अनावश्यकता पर ही निर्भर होकर रह जाएं और अपना अस्तित्व ही भूल जाएं। आविष्कार करो और वस्तुएं भी बनाओ। किसी दुखी को खुश करने के लिए, किसी की जान बचाने के लिए, किसी बेसहारा के सहारे के लिए, किसी बीमारी से लड़ने के लिए, देश की सुरक्षा के लिए, लेकिन किसी अच्छे-भले तंदुरुस्त दिमाग वाले इंसान को शरीर और मन से पंगु बनाने के लिए नहीं, उसे स्वार्थी और अकेला रहने के लिए नहीं।



आज भौतिक वस्तुएं इतनी ज्यादा हो रही हैं कि ये हमारे दैनिक जीवन का अनचाहा आवश्यक हिस्सा बन चली हैं, जिन्हें कई लोग अपनी उच्च जीवनशैली दर्शाने का साधन भी बना चुके हैं। इन भौतिक साधनों को पाने की चाहत में वे दिन-रात लगे रहते हैं और ना पाने पर कई दूसरी तिकड़में भिड़ाते हैं, ताकि कैसे भी वो वस्तु इनके पास भी हो। सारी उम्र लोग इसी जद्दोजहद में निकाल रहे हैं, जिससे भ्रष्टाचार बढ़ता जा रहा है और इसी कारण सुकून मर गया है, व्यावहारिकता, आत्मीयता व मानवता धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं।





ये लालसा हमें ज्यादातर आलसी व झूठा बना रही है। बच्चे भी इस होड़-जोड़ को देख रहे हैं। इसी माहौल को, ऐशो-आराम को अपना रहे हैं, जिससे उनमें भी भौतिक विलासिता की प्रवृत्ति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आज अधिकांश बच्चे एक अनचाही चमक और विलासितापूर्ण जीवन की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हमें थोड़ा ठहरकर सोचना होगा, कि हम किस ओर जा रहे हैं? हमारा देश, हमारी संस्कृति, अध्यात्म, मेहनत व सचाई पर जोर देती है।



जो शांति व संयम से जीने की राह दिखाती है, परंतु इस भोगवादी जीवन से हमें केवल झूठ, भ्रष्टाचार और अमानवीयता ही मिल रही है। जिसे हम अपनी आगे आने वाली पीढ़ी को भी सौंप रहे हैं। थोड़ा आत्मचिंतन कीजिए, सोचिए कि आखिर हम कहां, किस ओर खुद को व अपनी आने वाली नस्लों को ढकेल रहे हैं? क्या ये राह गलत तो नहीं?