कुछ वर्ष पूर्वकी बात है- कलकतेमें एक दिन मैं अपने पड़ोसी मित्र रामप्रतापके साथ गंगा नहाने जा रहा था। रास्तेमें भीड़ थी; हमलोगोंके स्वभावमें कुछ उद्दण्डता तथा अल्हड़पन था। जवान उम्र, घरमें पैसे, किसी का नियंत्रण नहीं। हम दोनों गंगा-स्नानके पुण्यके लिए नहीं, मौज के लिए नहाना जाया करते थे। रास्तेमें मनमाना बोलते-हँसते, राह चलतोंकी दिल्लगियाँ उड़ाया चलते थे। रास्तेमें कीचड़ था। एक सज्जन कुछ अधेड़ उम्रके, चश्मा लगाये हमारे आगे-आगे जा रहे थे। शायद कुछ श्लोक-पाठ कर रहे थे। मैंने उनको तंग करने के लिए छेड़खानी की। उन्होंने मुड़कर हमलोगोंकी ओर देखा और मुस्कराकर शान्ति से चलने लगे। हमलोग तो उनकी शान्ति भंग करना चाहते थे, अतएव बेमतलब अनाप-शनाप बकने लगे। इसपर भी उनकी शान्ति भंग नहीं हुई। वे बीच-बीचमें हमारी ओर देखकर मुस्करा देते। पर हमलोगोंकी उद्दण्डता उनकी हँसी को कैसे सह सकती थी। मैंने बगलसे निकलकर कोहनीसे बड़े जोर से उन्हें धक्का दिया, वे कीचड़में गिर पड़े और मैं ठहाका मारकर हँस पड़ा। इतनेमें मैंने देखा- मेरा साथी रामप्रताप भी फिसलकर गिर पड़ा है। शायद उन सज्जनके गिरनेकी खुशीमें वह अपनेको सँभाल न सका हो और उसका पैर फिसल गया हो। लोग इकट्टे हो गये। कीचड़में लथपथ वे सज्जन उठकर खड़े हो गये। उनका चश्मा टूट गया था। धोती-चद्दर, नहाकर पहनने के लाये हुए कपड़े, सारा शरीर कीचड़ से लथपथ हो गया था। चश्मेके काँच की नाकपर एक खरौंच लगी थी। शायद और अंगों में भी चोट लगी हो। उन्होंने उठते ही मेरी ओर देखा कि पास ही गिरे हुए साथी रामप्रतापको सँभालकर उठाने लगे। रामप्रताप के दाहिने हाथमें काफी चोट आयी थी। वह बहुत बेचैन था। उन्होंने तथा मैंने बड़ी कठिनतासे उसे उठाया। वह वेदना के मारे अत्यन्त व्याकुल था।
कुछ दूर खड़े कान्स्टेबिलको उन्होंने पुकारा।पुकारते ही वह आया और उन सज्जन की ओर देखकर तथा मानो उन्हें पहचानकर उसने बड़े अदबसे सलाम किया और आज्ञा माँगी-‘क्या करुँ?’ उन्होंने शान्तिपूर्वक कहा- ‘ एक घोड़ागाड़ी लाओ, इन्हें अस्पताल ले जाना है।’ कान्स्टेबिल ने बड़े सम्मानसे कहा- ‘हुजूरके कपड़े भी कीचड़से भर गये हैं। हुजूर गंगास्नानको पधारें। मैं अभी थाने से दारोगाजीको कहकर सिपाही ले आता हूँ। हुजूर हुक्म दें तो दारोगाजी को ही ले आऊँगा। और इनको अस्पताल ले जाऊँगा। इलाजकी सब व्यव्स्था हो जायेगी।’ मैं समझ गया कि ये सज्जन कोई पुलिस के बड़े अधिकारी हैं। मैं रो पड़ा और थड़-थड़ काँपने लगा। मैंने उनके पैर पकड़ लिये। उन्होंने हँसते हुए कहा- ‘ भैया ! तरुणावस्थामें अल्हड़पन हुआ ही करता है। आप डरिये नहीं। हाँ भविष्यमें इतना ध्यान रखिये कि जिसमें अपना तथा दूसरे का किसी प्रकार का नुकसान या अहित होता हो वैसी अल्हड़पना मत कीजिये।’ मुझसे इतना कहकर उन्होंने कान्स्टेबिलसे कहा-‘तुम ड्यूटीपर हो इसलिये थाना जाने की जरुरत नहीं है। सिर्फ एक घोड़ागाड़ी ले आओ। इनको मैं ही अस्पताल ले जाऊँगा। सहायता के लिए इनके साथी ये सज्जन मेरे साथ जायँगे ही।’
मेरी विचित्र दशा थी। शरीरमें पसीना आ रहा था। डर तो था ही। साथ ही इन देवता पुलिस-अफसरके बर्तावसे मैं आश्चर्य-चकित था और मैं प्रत्यक्ष अनुभव कर रहा था कि मेरा स्वभाव या जीवन बड़ी तेजीसे बदल रहा है। मुझे अपनी करनी पर पश्चाताप था। भविष्यमें वैसा कोई भी कर्म न करनेकी मैंने मन-ही-मन प्रतिज्ञा की। मेरा मन उन देव-मानवके चरणोंके प्रति भक्तिश्रद्दासे अनवरत हो रहा था।
गाड़ी आयी। मैंने तथा उन्होंने रामप्रतापको सहारा देकर गाड़ीपर चढ़ाया। वे उसी कीचड़सने शरीरसे अस्पताल पहुँचे। उन्हें कोई लाज-शरम नहीं आयी। उन्होंने वहाँ अपना परिचय दिया, तब पता लगा कि वे पुलिस-कप्तान (सुपरिटेंडेंट) हैं और बड़े सम्भ्रान्त कुलके सज्जन हैं।
डाँक्टरोंने बड़े सम्मानके साथ उन्हें बैठाया। हाथ-पैर धुलवाये। उन्होंने कहा- ‘हम दोनों ही कीचड़में रपट कर गिर गये।’ रामप्रतापकी समुचित चिकित्सा हुई। हड्डी नहीं टूटी थी। दवा लगाकर पट्टी बाँध दी गयी। एक दूसरी धोड़ागाड़ी मँगवाकर उन्हेंने हम दोनोंको विदा करते हुए कहा- ‘भाई ! डरना नहीं। मुझे तो बड़ा दु:ख इस बात है कि आपलोगोंका मजा उन्हें चोट लगने से किरकिरा हो गया। मैं ही गिरा होता तो मेरा कुछ बिगड़ा नहीं था और आपका मनोरंजन हो जाता। मैं तो गंगास्नान करने जा ही रहा था। कीचड़ वहाँ धुल जाता। पर भाई ! जैसा मैंने इनसे कहा है, ऐसे मनोरंजनकी चेष्टा मत किया करो, जिससे आपकी अथवा दूसरेकी हानि हो या अहित हो। मुझे अपना मित्र मानना, सचमुच तुम मेरे मित्र हो और मैं तुम्हारा मित्र हूँ। कभी भी मेरे योग्य कार्य हो तो नि:संकोच मिलना।
हम तो सुनकर चकित हो गये। मैंने भक्तिविनम्र स्वरसे उनके चरणोंमें प्रणाम किया। सचमुच वे हमारे यथार्थ मित्र ही थे और मित्र ही बने रहे। उनसे शुभकी ओर जीवन-परिवर्तनमें समय-समयपर बड़ी सहायता मिली। मित्रका धर्म ही है-
‘कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।’
हमलोगोंका जीवन जो हजारों उपदेश-वाक्योंसे अबतक नहीं बदला था और आगे भी नहीं बदल सकता था; क्योंकि हमें अपने उद्दण्डताके समाने न किसीका उपदेश सुननेकी फुरसत थी, न श्रद्धा ही थी- आज इन देवपुरुषके आचरण से अकस्मात् बदल गया और तबसे हम भी बदल गये।
-गजानन शर्मा
("आदर्श मानव-हृदय" पुस्तक से)