अभी लंबे दौरे से लौटा हूं। बैंगलोर, कानपुर,कानपुर देहात, झांसी, ओरछा, ग्वालियर, आगरा वगैरह। पिछले पांच-सात साल में हर छोटे शहर की तस्वीर तो काफ़ी बदली है। लेकिन जीवन की वो धीमी चाल उतनी धीमी नहीं रही छोटे शहरों में भी। हर कोई कहीं दौड़े जाता है। दिल्ली-बंबई जितना तेज़ तो नहीं, लेकिन जैसे पहले हुआ करता था वैसा रहा नहीं। एक तो इन प्राइवेट नौकरियों ने हिंदुस्तान की शाम छीन ली है। वो अंधेरा छाने से पहले घर लौट आना, चाय की प्याली, पार्क की सैर, परिवार के साथ बाज़ार की सैर, कभी चाट, कभी पान, गपशप, गोल-गप्पे, सब बलि चढ़ गया प्राइवेट नौकरी की। छोटे शहरों में भी। जो डेली का स्ट्रेस बस्टर था, वो वीकली हो गया। अब सिर्फ़ इतवार को वो सब होता है। और वो भी हर इतवार को नहीं, हफ़्ते-भर के पहले ही इतने काम रहते हैं कि तफ़रीह तो बस कुछ ही देर हो पाती है। इन प्राइवेट कंपनियों को जैसे अधिकार-सा दे दिया है हमने हमारा ख़ून चूसने का। सभी को देर तक दफ़्तरों में रोका जाता है जो कि काग़ज़ों में नहीं दिखाया जाता लेकिन प्रोफ़ेशनलिज़्म के नाम पर उसे सहना भी सिखाया जाता है। काम ज़्यादा है, काम ज़्यादा है। अरे भाई काम कम कब होता है? सबने ये मान लिया है कि सरकारी नौकरी में ये-ये-ये हक़ मिलते हैं जो कि प्राइवेट नौकरी में नहीं मिलते। ये क्यों मान लिया है हमने जबकि सरकार से सुविधाएं लेने के लिए सभी कंपनियां काग़ज़ों में कभी नहीं दिखातीं कि वो लोगों से बारह-बारह घंटे काम करवाती हैं, छुट्टी के दिन बुलवा लेती हैं। प्राइवेट कंपनी के अफ़सरों से तो यहां तक कहा जाता है कि आप तो ज़िम्मेदार पद पर हैं, आपके लिए काहे की छुट्टी? किस बात का कॉम्प ऑफ़? ओवरटाइम तो लोअर लेवल स्टाफ़ के लिए है। और सबने इसे क़ुबूल कर लिया है। मेरा मानना है कि ये सब इनसिक्यूरिटी की वजह से होता है। जिन लोगों को अंदर ही अंदर ये लगता है कि वो शायद ज़्यादा क़ाबिल नहीं, वो अपनी क़ाबिलियत पर फ़ोकस पड़ने ही नहीं देना चाहते इसलिए ऑफ़िसों में अपने घंटे गिनवाते रहते हैं। कि भई वाह, क्या कर्मठ इनसान है! 14-15 घंटे रहता है दफ़्तर में और छुट्टी भी नहीं लेता। अब डिलिवर क्या करता है ये कोई नहीं देखता, बल्कि दूसरों पर भी घंटे बढ़ाने का दबाव बढ़ता रहता है। सब जगह यही कहानी है। अब जहां कुछ साबुन-तेल या कुछ और बनाने की फ़ैक्टरी हो वहां तो ठीक है कि चलो इतने घंटे रुक गए तो इतना प्रोडक्शन बढ़ गया। लेकिन जाहिलों और क़ाहिलों ने ये टेकनीक हर कंपनी में लगा रखी है। और शाम छीन ली है हिंदुस्तान की। बस अंधेरा होने के बाद चिढ़-चिढ़े से घर लौटो, टीवी देखो, खाना खाओ और सो जाओ। डॉक्टरों की, योग गुरुओं की, कार-स्कूटर कंपनियों की, हम टीवीवालों की, दुकान चलती रहे बस। बच्चों के साथ मत घूम आना पार्क में। चाची के घर न चले जाना पकोड़े खाने। प्राइवेट कंपनी में बड़े ओहदे पर हैं न आप तो.
प्राइवेट कंपनी की नौकरी के बारे में मेरा अंदाज़ा सही निकला। सब परेशान हैं। परिवार, रिश्ते, सुक़ून, वो सब जो हमारे समाज का आधार रहा है, उसपर घात लग रही है। सबका सवाल यही रहता है कि इन बॉस लोगों का परिवार नहीं होता क्या? इनके भी तो बच्चे हैं, फिर ये क्यों हमारे साथ ऐसा कर रहे हैं? मुझे लगता है ये रैगिंग वाला सिंड्रोम है। फ़र्स्ट ईयर में जो लोग रैगिंग के ख़िलाफ़ होते हैं, वही सेकंड ईयर में सबसे ज़्यादा रैगिंग करते हैं। शर्म आती है अपने आप पर आज लेकिन मैं भी इंजीनियरिंग कॉलेज में उन्हीं में से था। लेकिन यही मुझे प्राइवेट कंपनियों में दिखता है, वही शख़्स जिसका ख़ुद का पारिवारिक जीवन नौकरी की चक्की में पिस गया जब बॉस बन जाता है तो अपने नीचे वालों को पीसता है। हम टीवी वालों में क्या है कि कितने ही चेहरे हैं जिनको पब्लिक बड़ा क़ाबिल मानती है, लेकिन अपने संस्थान के अंदर उनकी कोई इज़्ज़त ही नहीं होती। कई तो वाकई ढक्कन हैं, लेकिन कइयों को इसलिए नीची नज़र से देखा जाता है क्योंकि वो ज़्यादा घंटे नहीं लगाते! और कई ऐसे-ऐसे हैं जिनको कोई गधा भी पहचान जाता है कि किसी क़ाबिल नहीं, दर्शक सोचते हैं कि क्यों इसको ये चैनल इतना भाव देता है? लेकिन वो लोग इतने घंटे लगा डालते हैं काम में कि कोई कुछ कर ही नहीं पाता। वैसे यहां ये बताता चलूं कि मैं भी दिन-रात दफ़्तर में बिताने वालों में से हूं। लेकिन छोटा मुंह बड़ी बात इतना कह सकता हूं कि विश्वास है मुझे कि मेरी अहमियत मेरे दफ़्तर के लिए लगाए वक़्त की वजह से कम और मेरी क़ाबिलियत की वजह से ज़्यादा है। बहरहाल, इस सिस्टम को चैलेंज करने की ज़रूरत है। ये स्ट्रेस, ये टेंशन, ये थकान, ये पारिवारिक कलह, ये शराब-सिगरेट की लत, ये बच्चों पर बुरा असर, ये सब किसी न किसी तौर पर तो इसी प्राइवेट नौकरी की संस्कृति से जुड़ा है। अभी कुछ महीने हुए आईआईटी रुड़की जाना हुआ था। पता लगा मंदी की वजह से पिछले साल ज़्यादातर कंपनियां जो नौकरी देने वहां आई थीं, वो सरकारी थीं। तनख़्वाह प्राइवेट जितनी तो नहीं थी। बड़े बेमन से स्टूडेंट्स ने वो नौकरियां ले लीं कि जब मंदी ख़त्म होगी तो प्राइवेट में जंप कर लेंगे। लेकिन आज कोई वो नैकरियां छोड़ने को तैयार ही नहीं। परिवार ही तो सब कुछ है। मुझे अपने मां-बाप से मिले हुए ज़माना हो गया। चाचा-मामा वगैरह तो किसी शादी में ही मिल पाते हैं, लेकिन ज़्यादातर शादियों पर तो जा ही नहीं पाते। और सच बताऊं, मैं तो किसी दोस्त-रिश्तेदार के घर इसलिए नहीं जाता कि कहीं वो हमारे घर न आ जाएं! महमाननवाज़ी कौन करेगा? यही सब का हाल है। लेकिन दिल्ली-बंबई में तो ये बहुत पहले हो गया था, अब ये रोग छोटे शहरों को लग गया है। तो बचा क्या?