आज सुबह शहर के एक अखब़ार में 'कोलावेरी दी 'पर जनमत प्रकाशित हुआ . विषय था की यह गीत लोकप्रिय प्रसार तंत्र की वजह से हुआ या इसकी धुन की वजह से . मेरे मन ने इस शब्द को पकड़ कर इसकी कुछ और ही परिभाषा गढ़ दी.'कोलावेरी दी' माने 'जानलेवा गुस्सा' भले ही इस गीत में प्रेमिका की बेवफाई पर यह 'कोलावेरी दी' है पर हकीक़त में आज इन्सान के मन में किसी न किसी रूप में 'कोलावेरी दी' उबल ही रहा है कहीं इसका हिंसात्मक रूप बाहर आ रहा है तो कहीं घुटन भरा निर्णय जो स्वयं की जीवन लीला समाप्त कर रहा है .आख़िर यह 'कोलावेरी दी ' क्यों ? कहाँ जाकर रुकेंगे हम ? क्या इसका कोई समाधान हो सकता है ? इसी प्रश्न को तलाशती मेरी ये कविता
अपने को साबित कर सकता है
काहे की बेसब्री,तूफ़ान और कोलाहल
और काहे की 'कोलावेरी ,कोलावेरी ,कोलावेरी दी'