दीवारें न देंख - दुष्यंत कुमार
आज सडकों पर लिखे हैं सैकडों नारे न देख
घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
एक दरिया है यहाँ दूर तक फैला हुआ
आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख
अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह
यह हकीकत देख लेकिन खौफ के मारे न देख
वे सहारे भी नहीं अब जंग लड़नी है तुझे
कट चुके जो हाथ उन हाथों मे तलवारें न देख
दिल को बहला ले इजाजत है मगर इतना न उड़
रोज सपने देख लेकिन इस कदर प्यारे न देख
ये धुंधलका है नज़र का तू महज मायूस है
रोजनों को देख दीवारों में दीवारें न देंख
राख कितनी राख है चारों तरफ बिखरी हुई
राख मे चिंगारियां ही देख अंगारें न देख
A Great Poem
Milan Somani (CA) (1456 Points)
08 May 2009