दो रस्ते जीवन के
मुझे मिले जब मैं बच्ची थी छोटी
भैया के जन्म दिवस का उलास
और मेरे जन्म से उदास
तब दो रस्ते थे :
पापा के वैवाहर पे सवाल करू
या उनका समान करू
मैंने समान किया
फिर जब मैं थोरी बड़ी हुई
मैं चाहती थी स्कूल जाना
पर माँ चाहती उसके कम में हाथ बटाना
तब दो रस्ते थे :
अपने भविष की खुशिया देखू
या माँ के वर्तमान की तकलीफे
मैंने माँ की तकलीफे देखि
यौवन भी आया तो दो रस्ते थे
विवाह !
सवाल था अपनी खुसी या समाज
और जवाब समाज ही होना था
पिता का सामान भी तो जुरा था
पति , ससुराल, सास - ससुर
देवर- जेठ, ननद - भओजई
वक्त ने कितनी करवट खाई
फिर महसूस किया था ममता को
जब बेटी मेरे गर्भ में आई
तब दो रस्ते थे
क्या दो उसे भी येही दो रस्ते जीवन के
जिसमे मैं उसे हर बार दूसरा रास्ता लेने की आजादी दू
या पति के अहम् का मान करू
कब सुनी थी मैंने अपने दिल की
क्या आजादी थी मुझे सुनने की
वक्त बिता, और बिता उम्र
बालो में आई सफेदी
पर जीवन तो सदा से बेरंग थी
आज उनको सिकायत की
मुझे अक्षर का ज्ञान नहीं
और मैं उनके सामान नहीं
मैंने तो कभी न सोच
उनको ज्ञान हो सुई डोरे का
या नमक आटे का, मेरे सुख दुःख का
हर पल था मेरा सबके लिए
सबकी इक्छो को समान दिया
आज फिर दो रस्ते है
इंतजार करू अंत का(death)
या सुरुवात करू दुसरे रस्ते की ओर
अपने लिया, सब के लिया